सुदूर हिमालय की गोद में बसे पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड देवभूमि के नाम से जाना जाता है । यहाँ पौराणिक काल से ही विभिन्न देवी-देवताओं का पूजन भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रचलित है। इनमें से एक शक्ति-पीठ ‘कालिंका देवी’ (काली माँ) पौड़ी और अल्मोड़ा दोनों जिलों के बीच सीमा पर ऊंचे पहाड़ की चोटी में स्थित है। इस चोटी से देखने पर हिमालय के दृश्य का आनन्द बहुत ही अद्भुत और रोमांचकारी होता है। सामने वृक्ष, लता, पादपों की हरियाली ओढ़े ऊंची-नीची पहाडि़याँ दिखाई देती हैं और पीछे माँ कालिंका के मंदिर का भव्य दृश्य।
उत्तराखंड को चमत्कारों की धरती व देवभूमी माना जाता है। कहा जाता है की अत्तराखंड के हर मंदिर में आपको कोई नया चमत्कार देखने को मिलता है। यहां मंदिरों में एक अलग ही अलौकिक शक्तियां प्रवाह करती है मानों जैसे साक्षात यहीं रहती हों। ऐसा ही एक शक्तिपीठ है मां कलिंका का जो अपने रहस्य और चमत्कारों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। यहां देवी खुद भक्तों के बीच आती हैं और उनकी मनोकामनाएं सुनती हैं। मां काली के इस मंदिर में हो रहे चमत्कार को यदि आप अपनी आंखों से देखेंगे तो आप खुद पर यकीन नहीं कर पाएंगे। मां के इस दरबार में सच्चे दिल से मनोकामना लेकर जाने वाले कभी खाली हाथ नहीं लौटते। मंदिर को लेकर कहा जाता है कि यहां मां काली खुद आपकी मनोकामना बताती हैं। इसके साथ ही मौके पर ही आपकी मनोकामना का समाधान भी कर देतीं है।
माँ कालिंका के बारे में मान्यता है कि सन् 1857 ई. में जब गढ़वाल और कुमाऊँ में गोरखों का राज था, तब सारे लोग गोरखों के अत्याचार से परेशान थे। इनमें से एक वृद्ध व्यक्ति (Lali Babu ji) जो बडियारी परिवार के रहने वाले थे जिनका नाम लैली बडियारी के नाम से जाना जाता है वह काली माँ के परम भक्त थे, एक बार भादौ महीने की अंधेरी रात को रिमझिम-रिमझिम बारिश में जब वह गहरी नींद में सोये थे, तभी अचानक उन्हें बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली चमकने के साथ ही एक गर्जना भरी आवाज सुनाई दी, जिससे वह भयभीत होकर हड़बड़ाकर उठ बैठा। जब उन्होंने बाहर की ओर देखा तो माँ कालिंका छाया रूप में उनके सामने प्रकट हुई और उनसे कार्तिक माह की एकादशी को पट्टी खाटली के बन्दरकोट गांव जाकर उनका मंदिर बनवाने को कहकर अंतर्ध्यान हो गई। भक्त की भक्ति एवं माँ की शक्ति के प्रताप से देखते-देखते गांव में मन्दिर बन गया, दिन, महीने, साल बीते,
तो एक बडियारी परिवार का विस्तार चौदह गांव तक फैल गया, तब एक दिन मां कालिंका अपने भक्तों के सपनों में आकर बोली कि वे सभी मिलकर उनकी स्थायी स्थापना गढ़-कुमाऊँ में कर ममगांई परिवार जखोला वालों को पूजा का भार सौंपे, माँ के आशीर्वाद से सभी गांव वालों ने मिलकर गढ़वाल कुमाऊँ की चोटी पर शक्तिपीठ कालिंका मंदिर की स्थापना की, जहाँ हर तीसरे वर्ष पौष कृष्ण पक्ष में शनि और मंगलवार के दिन मां कालिंका के मंदिर में मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर गांवों में बसे लोगों के अलावा हजारों-लाखों की संख्या में देश-विदेश के श्रद्धालुजन आकर फलदायिनी माता से मन्नत मांगते हैं।
कोठा गांव में माँ कालिंका की पहली पूजा के साथ ही शुरू होता है मां कालिंका की (न्याजा) का 14 गांव-गांव यात्रा (भ्रमण। यात्राकर अपनी दीशा धायानीयो को आशीर्वाद देने के लिए लगभग 11 दिन से 1 महीने तक गाजे-बाजे के साथ भ्रमण करती है अंत में मेले के दिन मंदिर में पहुंचती है। इसके बाद विभिन्न पूजा विधियों के साथ ही शुरू होता है माँ काली की पूजा की जाती है जिसे हम जटोडे के नाम से जानते है।
इस मेले का मुख्य आकर्षण यह है कि जो भी भक्तगण मां कालिंका के मंदिर में मन्नत मांगते हैं, उनकी मनोकामना पूर्ण होती है तथा अगले तीसरे वर्ष जब यह मेला लगता है, तब वे खुशी-खुशी से मां भगवती के दर्शन के लिए आते हैं।
"देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यषो देहि द्विषो जहि।।"
इस मंदिर में उत्तराखंड के यहां दूर-दराज के क्षेत्रों से लोग अपनी परेशानियां लेकर आते हैं। सिर्फ देश से ही नहीं वल्कि विदेश से भी लोग अपनी परेशानियों का हल लेने आते हैं। मंदिर की खास बात यह है कि यहां दिल्ली, मुंबई, राजस्थान से कई फरियादी आते हैं। मां हर भक्त की मनोकामना को पूर्ण करती हैं। उत्तराखंड की कुछ खास वजहें हैं और इन वजहों से ही इसे देवभूमि कहा जाता है। मां कालिंका के इस मंदिर में विज्ञान भी फेल हो चुका है। हर बार यहां ऐसे ऐसे चमत्कार होते हैं कि खुद वैज्ञानिक भी हैरान हो जाते हैं। स्थानीय लोग कहते हैं कि आज माता से आशीर्वाद लेने वालों में कई वैज्ञानिक भी हैं।
कुमाऊ और गढ़वाल बॉर्डर में स्थित प्रसिद्ध कालिंका मंदिर में मां काली के रूप के दर्शन होते हैं और मां अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैै।, मंदिर में पूजा-अर्चना की जिम्मेदारी पूज्य लैली बूबा ( दादा जी ) की स्मृति मे समस्त बडियारी वंशज. गढ़वाल, अल्मौडा को दी गई, जो सनातन रूप से आज भी इसका निर्वहन कर रहे हैं। मंदिर वर्षभर श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है।
जय माँ कालिंका!