डॉक्यूमेंट्री
उत्तराखण्ड के दो जिलों पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा के सीमान्त क्षेत्रों में बसे 14 गांवों के बडियारी रावतों द्वारा अपनी कुल देवी मां काली के सुन्दर सुशोभित स्वरूप मां भगवती न्याजा के रूप में एक सामूहिक पूजा और धार्मिक यात्रा का आयोजन किया जाता है।
एक ऐसा भव्य और विशाल धार्मिक अनुष्ठान जहां लाखों लोग गहरी आस्था,श्रद्धा और विश्वास के साथ अपनी मनोकामनाओं को लेकर अपार शक्ति की देवी मां भगवती काली के इस पवित्र स्थान और यात्रा में एकत्रित तथा शामिल होते हैं।
उत्तराखण्ड एक ऐसा राज्य जिसे देवभूमि के नाम से पुकारा जाता है।क्योंकि यह समग्र क्षेत्र धर्ममय और दैवशक्तियों की क्रीड़ाभूमि तथा हिन्दू धर्म के उदगम और महिमाओंं की सारगर्भित कुंजी व रहस्यमय है।
यहाँ चारों ओर व्याप्त देवी-देवताओं का वास है। प्रसिद्ध मंदिर और सिद्धपीठ हैं। इन्हीं में से एक पवित्र धाम मां भगवती काली को समर्पित शक्तिपीठ पौड़ी गढ़वाल के विकासखंड बीरोंखाल और अल्मोड़ा जिले के स्याल्दे विकासखंड की सीमाओं के बीचों-बीच ऊंचे पहाड़ की चोटी पर स्थित है जहां प्रत्येक तीन वर्ष के अन्तराल में पौष माह में बडियारी रावतों द्वारा 11से लेकर 14 दिनों की यात्रा के पश्चात मां कालिंका की पूजा होती है। प्राकृतिक सुन्दरता के बीच यह स्थान समुद्र तल से लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है जहां नवंबर से लेकर फरवरी तक भारी हिमपात की संभावना बनी रहती है। यहां से दूर-दूर तक चारों ओर हरे-भरे जंगलों के बीच बने खेतों और गांवों के साथ-साथ पूरब से लेकर उत्तर-पश्चिम के मध्य तक ऊंची-ऊंची हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं का सुन्दर दृश्य दिखाई देता है। आइये जानते हैं इस मेले और यात्रा के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में- पौराणिक लोक कथानुसार 14 गांवों में विभाजित बडियारी(रावत) वंशजों के पूर्वज जिनका नाम लैली था गढ़वाल के प्रसिद्ध बावन गढ़, जिनका उल्लेख यहां के सुप्रसिद्ध लोक गायक श्री नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने गीत -बीरू भडू कू देश बावन गढू कु देश,में किया है इनमें से एक टिहरी जिले में स्थित गढ वडियार गढ से थे। कहा जाता है पूज्य बूबा जी का जन्म 17वीं शताब्दी में टिहरी के वडियार गढ में एक संपन्न परिवार में हुआ था।उनकी शादी जाख नामक गाँव के कुकलियाल नामक परिवार की लड़की से हुई थी, उनके सात बेटे- मंगू, जीमा, केम्पू, कल्वा, दन्तु, नथू और मौल्या सिंह थे। ब्रिटिश काल के इतिहासकारों के अनुसार सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमांऊ पर आक्रमण कर कुमांंऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया था और गढवाल पर भी आक्रमण की तैयारी करने लगे। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों (किलों) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीन कर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदारखण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर महाराजा प्रधुमन शाह को मारकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था। गोरखा सेना की क्रूरता और अत्याचारों से तंग आकर लोग इधर-उधर उनसे लड़ते बचते जंगलों में भटकते गुफाओं में छुपते-छुपाते अपने गांव घरों को छोड़कर दूर दूर विस्थापित हो गए। इन्हीं विस्थापितों में से एक थे मां भगवती कालिंका के भक्त, बडियारी रावतों के पूजनीय बूबा जी लैली। गोरखा सेना के अत्याचारों से तंग आकर अपने मूल निवास वडियार गढ से अपनों से बिछुड़कर परिवार सहित पौड़ी जिले के सीमान्त क्षेत्र पाखापाणीं नामक जगह पर पहुँच बूबा जी ने एक चट्टान को काटकर परिवार के सदस्यों की रक्षा के लिए गुफा का निर्माण किया और वहीं से वे गोरखा सेना से लड़ते रहे यह गुफा आज भी वहां पर मौजूद है और गुफा के समीप ही आज एक स्कूल है जिसे लैली बूबा के नाम पर ललितपुर नाम दिया गया है।
माना जाता है कि एक बार बूबा जी को स्वप्न में काली मां के साक्षात् दर्शन हुए मां काली के दर्शन पाकर बूबा जी ने अपने परिवार की रक्षा के लिए आशिर्वाद मांगा मां काली ने आशिर्वाद देते हुए कहा कि किसी उच्च स्थान पर मेरे मंदिर (जिसे स्थानीय भाषा में थान कहते हैं ) का निर्माण करना और जब भी तुझ पर कोई संकट आए मेरा स्मरण करना मैं वहीं से तुम्हारे परिवार और इस क्षेत्र की रक्षा करूंगी। तत्पश्चात लैली बूबा जी ने गुफा के कुछ ही दूरी पर मां काली के पहले थान की जिसे आज बन्दरकोट गांव के नाम से जाना जाता है स्थापना की और मां काली की पूजा अर्चना करने लगे। कहा जाता है कि कई वर्षों तक विषम परिस्थितियों और गोरखा आक्रमण को झेलते-झेलते अपने परिवार के हितों की रक्षा करते हुए काली मां के भक्त परम पूजनीय बूबा जी गोरखा सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।
समय बदला और भारत के इस उत्तरी हिमालयी भूभाग पर सन् 1815 में ईष्ट इंडिया कंपनी का आगमन हुआ। यहाँ अंग्रेजों का आगमन वास्तव में गोरखों के 25 वर्षीय सामंती सैनिक शासन का अंत भी था। लंबे संघर्ष और जन जीवन सामान्य होने के बाद धीरे-धीरे लोग जंगलों को काटकर घरों और खेतों का निर्माण करने लगे। पूज्य बूबा जी के पुत्रों ने भी गुफा छोड़ काली मां के थान के निकट बंदरकोट में अपना निवास बनाया और गुजर बसर करने लगे। कहते हैं कि एक बार फिर से मां अपने किसी प्रिय भक्त के स्वप्नों में आई और जहां आज वर्तमान में स्थित मंदिर है अपने स्थान को परिवर्तित करने का आदेश दिया। समय के साथ-साथ परिवार का विस्तार और विभाजन होता गया और वर्तमान मंदिर के चारों ओर आज बहुत बड़े हिस्से में अधिकतर लैली बूबा जी के वंशजों वडियारि रावतों का निवास स्थान है जो क्रमशः इस प्रकार विभाजित हैं- 1. मंगु बूबा जी का परिवार- मवाण बाखली, धोबीघाट, कोठा मल्ला(पौड़ी गढ़वाल में) तनसालीसैंण, बाखली, रानीडेरा(अल्मोड़ा जिला)
2. जीमा बूबा जी का परिवार- मवाण बाखली(पौड़ी गढ़वाल)
मल्ला लखोरा(अल्मोड़ा)
3. केम्पू बूबा जी का परिवार- कोठा तल्ला(पौड़ी गढ़वाल)
4. कल्वा बूबा जी का परिवार- मरखोला(पौड़ी गढ़वाल) मठखानी(अल्मोड़ा)
5. दन्तु बूबा जी का परिवार- तनसाली सैंण(अल्मोड़ा) बन्दरकोट तल्ला(पौड़ी गढ़वाल)
6. नथू बूबा जी का परिवार- मठखानी(अल्मोड़ा)बन्दरकोट मल्ला(पौड़ी गढ़वाल)
7. मौल्या बूबा जी का परिवार- थबड़िया तल्ला(पौड़ी गढ़वाल जिले में) है।
आज इनका 14वां वंश अस्तित्व में है। इनमे आज सबसे आगे चलने वाली पीढ़ी जो है | वो कोठा मल्ला के स्वर्गीय श्री चन्दन सिंह रावत के पोते, ऋषभ रावत है| और थबड़िया तल्ला सबसे छोटे बेटे का बंसज है
मां काली की असीम कृपा और अपने बूबा की याद में वर्षों से चले आ रहे इस पूजा और यात्रा का इन गांवों और वंशजों द्वारा आयोजन किया जाता है। यह पूजा और यात्रा अपने आप में एक बहुत बड़े क्षेत्र को प्रभावित करने वाला अद्भुत धार्मिक कार्यक्रम है।
परम्परा अनुसार कार्तिक मास में दीपावली जिसे स्थानीय भाषा में बग्वाल कहते हैं के पश्चात बडियारी बंधुओं की कोठा गांव में जहां से मां भगवती की यात्रा प्रारंभ होती है पूजा और यात्रा के संबंध में बैठक होती है और सभी को अलग अलग कार्यों की जिम्मेदारी दी जाती है। इसके बाद जखोला गांव थलीसैंण जाकर महाकाली के पुरोहित और वडियारियों के पैतृक ब्राहमण, मंमगाईं पंडितों से आदरपूर्वक मिलकर मां भगवती की पूजा की स्वेच्छा करते हैं और शुभ दिन निकालने के लिए आग्रह करते हैं।
तथ्यों के अनुसार ममगांई पंडित और रावत दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं दोनों साथ साथ दक्षिण भारत से उज्जैन(मध्य प्रदेश) और फिर राजस्थान आए थे,राजस्थान में मुगलों के शासन काल में अत्याचारों से तंग आकर ये
लोग उत्तर की ओर टिहरी के वडियार गढ पहुंचे थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार दक्षिण और मध्य भारत से लोग यहाँ बद्री नारायण के दर्शनों के लिए आते थे और यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता को देखते हुए यहीं निवास स्थान बना लिया करते थे इन्हीं में से एक ये भी थे।
मंमगाईं पंडित पंचांग के अनुसार शुभ मुहूर्त देखकर मां भगवती के यात्रा और पूजा का दिन तय कर इन्हें बताते हैं
मां भगवती की यह पूजा हमेशा मंगल या शनिवार को ही होती है। इसके बाद उत्तराखण्ड की संस्कृति में मुख्य भूमिका निभाने वाले यहां की संस्कृति के संवाहक, ढोल-दमाऊ उत्तराखण्ड के मुख्य वाद्ययंत्र के वादक जिन्हें औजी कहते हैं,इन्हें इनके गांव बज्वाड़ जाकर मां भगवती के पूजा और यात्रा के बारे में अवगत कराया जाता है और दिवाली के 11दिन बाद होने वाले पहाड़ी त्योहार इगास के दिन मां भगवती के पवित्र प्रांगण कोठा गांव में रात्रि के जागरण के लिए न्योता दिया जाता है जिसे खलि जागन्त या जागृत कहा जाता है जिसे भैला कौथिग भी कहते हैं तथा इसी दिन पूजा और यात्रा के शुभ दिन के बारे में आम जन को भी सूचित किया जाता है। इसके बाद 15 से 20 दिन में यहीं से शुरुआत होती है यात्रा आयोजन की, मां काली के पुरोहित मंमगाईं पंडित तथा ढोल-दमाऊ लेकर पहुंचे औजियों का मां भगवती के प्रांगण में स्वागत सत्कार होता है औजी आकर पहले ढोल-दमाऊ बजाते हैं और ढोल-दमाऊ की मधुर ध्वनि के साथ आमजन को आमंत्रण देते हैं सूचित करते हैं। शाम को सभी वडियारि कुल के लोग अपने अपने गांवों से लाए अपने कृषि यंत्रों,शस्त्रों की पूजा करते हैं जिसे निकर पूजा कहते हैं। रात्रि भोजन के बाद फिर शुरू होता है देव नृत्य या कौथिग जिसमें विभिन्न क्षेत्रों,गावों से आमंत्रित किए गए देवताओं के डांगर जिन पर किसी देवी-देवता का प्रादुर्भाव होता है जैसे- कालिंका मां,कृष्ण,घनियाल,द्रौपदी,नृसिंह,ग्वेल आदि। पूरी रात देव नृत्य के साथ साथ मां भगवती के दिव्य स्वरूप न्याजा की तैयारी होती है। अगले दिन सुबह मां भगवती के प्रांगण में सूर्य की पहली किरण के साथ ढोल-दमाऊ,भंकोर और शुभ मांगलिक गीतों की मधुर ध्वनि के साथ सुन्दर सुशोभित स्वरूप मां भगवती न्याजा का प्रादुर्भाव होता है मां भगवती के दिव्य स्वरूप न्याजा के दर्शनों से आमजन प्रफुल्लित हो जाता है और मां की जयकार के साथ इस क्षण को देखने के लिए पहुंचे मां भगवती के सभी भक्त मां का आशिर्वाद प्राप्त करते हैं। इसके साथ ही प्रारंभ होती है मां भगवती की 11से लेकर 14 दिनों की यात्रा। बहुत समय पहले तक यह यात्रा लगभग 30 दिनों तक चलती थी और दूर दूर तक के क्षेत्रों जैसे- बिनसर,जोगिमणी,बीरोंखाल,घोड़ियाना, मैठाणा,बंवासा,सीली,जमरिया मंगरोखाल,इकूखेत आदि तक होती थी।वर्तमान में रोजगार के लिए अधिकतर लोगों के बाहर रहने के कारण और समय के अभाव में इस यात्रा को सीमित कर दिया गया है अब यह यात्रा अधिकतर एक तय सीमा के अंतर्गत ही होती है जिसे केर कहते हैं इस सीमा के अंदर सभी 14 वडियारि गांव आते हैं। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार यात्रा तय सीमा केर से बाहर करनी हो तो यात्रा की दिशा अलग होती है और अगर यात्रा तय सीमा के अन्दर ही हो तो अलग दिशा की ओर प्रस्थान किया जाता है। पहले दिन की यात्रा कोठा तल्ला से कोठा मल्ला तक होती है दूसरे दिन की यात्रा कोठा मल्ला से लेकर तिमलाखोली इससे आगे की यात्रा को समय और दिनों के हिसाब से तय किया जाता है यह निश्चित नही होता कि कहां दोपहर का भोजन होगा कहां पर रात्रि विश्राम। यात्रा के दौरान जहां पर भी रात्रि विश्राम होता है वहां देव नृत्य का आयोजन किया जाता है। आगे यह यात्रा धोबीघाट, वहां से थबड़िया तल्ला, वहां से मरखोला, मरखोला से बंदरकोट तल्ला, बंदरकोट तल्ला से बंदरकोट मल्ला, बंदरकोट मल्ला से तनसाली सैंण,तनसाली सैंण से रानी डेरा जाती है ,यहां पर मां भगवती की यात्रा का रात्रि विश्राम होता है सुबह यहां से कुलान्टेश्वर के लिए प्रस्थान किया जाता है यहां मां गंगा की सहायक दो धाराओं के पवित्र संगम पर स्थित शिव मंदिर के तट पर मां भगवती का पूरे विधि विधान के साथ पवित्र स्नान होता है साथ ही यात्रा में शामिल श्रद्धालू भी स्नान करते हैं। यहां से आगे बाखली नामक गांव की ओर प्रस्थान करते हैं,बाखली से मठखांणी,मठखांणी से लखोरा मल्ला, लखोरा मल्ला से मवाण बाखली और मवाण बाखली से यह यात्रा 11से 14 दिन में शाम को कोठा तल्ला मां भगवती के प्रांगण जहां से यात्रा प्रारंभ होती है वहां पहुंचती है। यहां एक बार फिर से रात्रि कौथिग देव नृत्य होता है। अगले दिन सुबह सूर्योदय होते ही मां भगवती की प्रतिमा न्याजा को श्रद्धालुओं के दर्शनों और महापूजा के लिए कालिंका मंदिर में स्थापित किया जाता है। जहां दूर दूर और चारों ओर से हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की लंबी लंबी कतारें मां के जयकारों के साथ मंदिर में पहुंचते हैं और मां भगवती के दर्शन कर अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए मां भगवती से प्रार्थना करते हैं।
विशाल जन समूह के बीच पूरे विधि विधान के साथ पूजा संपन्न होने पर मां भगवती शाम को सूर्यास्त से पहले वापस अपने निवास कोठा की ओर लौटती है और इसी के साथ दूर-दूर से यहां पहुंचे श्रद्धालुओं को शांतिपूर्वक अपने अपने गांवों, घरों जाने का आह्वान किया जाता है। दूसरे दिन सुबह कोठा गांव में पूरे विधि विधान के साथ पूजा,गोदान और हवन किया जाता है तथा क्षेत्र और लोगों की सुख संपन्नता के लिए मां भगवती से प्रार्थना के साथ ही पंडितों द्वारा समापन की घोषणा होती हैं। मंदिर में पहुंचने के लिए गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों से मुख्यतः तीन सड़क मार्ग हैं- रामनगर से सराईखेत मठखाणी-खलीढैया तथा रामनगर रसिया महादेव,बंदरकोट-कोठा, पौड़ी और कोटद्वार की ओर से बीरोंखाल आने वाले मुख्य मार्ग भी संपर्क मार्गों के माध्यम से रसिया महादेव के समीप रामनगर से आने वाले मुख्य मार्ग से जुड़ी है। इसके अतिरिक्त चारों ओर से सड़कों के निकट छोटे-2 बाजारों-मैठाणाघाट,बीरोंखाल, स्यूंसी,जोगिमणी आदि जगहों से पैदल मार्ग भी हैं। उष्णकटिबन्धीय मानसूनी विशेषताओं वाले इस क्षेत्र की जलवायु शीतोष्ण यानि ठंडा व गरम है इसकी विशेषता मौसम के अनुसार तापमान परिवर्तन है।जनवरी सबसे ठण्डा महीना होता है, जब निम्न तापमान लगभग 5° सेल्सियस हो जाता है।वहीं सबसे गर्म महीना मई से लेकर जून मध्य तक होता है जब तापमान लगभग 30-35°सेल्सियस तक होता है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में होने के कारण यहां पर नवम्बर मध्य से लेकर फरवरी तक हिमपात की संभावना रहती है। डॉक्योमेंटी रिलीज़ की तारीख: 23/03/2020
कहानी लेखक एवं संकलन - जगमोहन पटवाल (थबड़िया मल्ला)

यहाँ चारों ओर व्याप्त देवी-देवताओं का वास है। प्रसिद्ध मंदिर और सिद्धपीठ हैं। इन्हीं में से एक पवित्र धाम मां भगवती काली को समर्पित शक्तिपीठ पौड़ी गढ़वाल के विकासखंड बीरोंखाल और अल्मोड़ा जिले के स्याल्दे विकासखंड की सीमाओं के बीचों-बीच ऊंचे पहाड़ की चोटी पर स्थित है जहां प्रत्येक तीन वर्ष के अन्तराल में पौष माह में बडियारी रावतों द्वारा 11से लेकर 14 दिनों की यात्रा के पश्चात मां कालिंका की पूजा होती है। प्राकृतिक सुन्दरता के बीच यह स्थान समुद्र तल से लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है जहां नवंबर से लेकर फरवरी तक भारी हिमपात की संभावना बनी रहती है। यहां से दूर-दूर तक चारों ओर हरे-भरे जंगलों के बीच बने खेतों और गांवों के साथ-साथ पूरब से लेकर उत्तर-पश्चिम के मध्य तक ऊंची-ऊंची हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं का सुन्दर दृश्य दिखाई देता है। आइये जानते हैं इस मेले और यात्रा के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में- पौराणिक लोक कथानुसार 14 गांवों में विभाजित बडियारी(रावत) वंशजों के पूर्वज जिनका नाम लैली था गढ़वाल के प्रसिद्ध बावन गढ़, जिनका उल्लेख यहां के सुप्रसिद्ध लोक गायक श्री नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने गीत -बीरू भडू कू देश बावन गढू कु देश,में किया है इनमें से एक टिहरी जिले में स्थित गढ वडियार गढ से थे। कहा जाता है पूज्य बूबा जी का जन्म 17वीं शताब्दी में टिहरी के वडियार गढ में एक संपन्न परिवार में हुआ था।उनकी शादी जाख नामक गाँव के कुकलियाल नामक परिवार की लड़की से हुई थी, उनके सात बेटे- मंगू, जीमा, केम्पू, कल्वा, दन्तु, नथू और मौल्या सिंह थे। ब्रिटिश काल के इतिहासकारों के अनुसार सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमांऊ पर आक्रमण कर कुमांंऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया था और गढवाल पर भी आक्रमण की तैयारी करने लगे। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों (किलों) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीन कर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदारखण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर महाराजा प्रधुमन शाह को मारकर अपना राज्य स्थापित कर लिया था। गोरखा सेना की क्रूरता और अत्याचारों से तंग आकर लोग इधर-उधर उनसे लड़ते बचते जंगलों में भटकते गुफाओं में छुपते-छुपाते अपने गांव घरों को छोड़कर दूर दूर विस्थापित हो गए। इन्हीं विस्थापितों में से एक थे मां भगवती कालिंका के भक्त, बडियारी रावतों के पूजनीय बूबा जी लैली। गोरखा सेना के अत्याचारों से तंग आकर अपने मूल निवास वडियार गढ से अपनों से बिछुड़कर परिवार सहित पौड़ी जिले के सीमान्त क्षेत्र पाखापाणीं नामक जगह पर पहुँच बूबा जी ने एक चट्टान को काटकर परिवार के सदस्यों की रक्षा के लिए गुफा का निर्माण किया और वहीं से वे गोरखा सेना से लड़ते रहे यह गुफा आज भी वहां पर मौजूद है और गुफा के समीप ही आज एक स्कूल है जिसे लैली बूबा के नाम पर ललितपुर नाम दिया गया है।
माना जाता है कि एक बार बूबा जी को स्वप्न में काली मां के साक्षात् दर्शन हुए मां काली के दर्शन पाकर बूबा जी ने अपने परिवार की रक्षा के लिए आशिर्वाद मांगा मां काली ने आशिर्वाद देते हुए कहा कि किसी उच्च स्थान पर मेरे मंदिर (जिसे स्थानीय भाषा में थान कहते हैं ) का निर्माण करना और जब भी तुझ पर कोई संकट आए मेरा स्मरण करना मैं वहीं से तुम्हारे परिवार और इस क्षेत्र की रक्षा करूंगी। तत्पश्चात लैली बूबा जी ने गुफा के कुछ ही दूरी पर मां काली के पहले थान की जिसे आज बन्दरकोट गांव के नाम से जाना जाता है स्थापना की और मां काली की पूजा अर्चना करने लगे। कहा जाता है कि कई वर्षों तक विषम परिस्थितियों और गोरखा आक्रमण को झेलते-झेलते अपने परिवार के हितों की रक्षा करते हुए काली मां के भक्त परम पूजनीय बूबा जी गोरखा सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।
समय बदला और भारत के इस उत्तरी हिमालयी भूभाग पर सन् 1815 में ईष्ट इंडिया कंपनी का आगमन हुआ। यहाँ अंग्रेजों का आगमन वास्तव में गोरखों के 25 वर्षीय सामंती सैनिक शासन का अंत भी था। लंबे संघर्ष और जन जीवन सामान्य होने के बाद धीरे-धीरे लोग जंगलों को काटकर घरों और खेतों का निर्माण करने लगे। पूज्य बूबा जी के पुत्रों ने भी गुफा छोड़ काली मां के थान के निकट बंदरकोट में अपना निवास बनाया और गुजर बसर करने लगे। कहते हैं कि एक बार फिर से मां अपने किसी प्रिय भक्त के स्वप्नों में आई और जहां आज वर्तमान में स्थित मंदिर है अपने स्थान को परिवर्तित करने का आदेश दिया। समय के साथ-साथ परिवार का विस्तार और विभाजन होता गया और वर्तमान मंदिर के चारों ओर आज बहुत बड़े हिस्से में अधिकतर लैली बूबा जी के वंशजों वडियारि रावतों का निवास स्थान है जो क्रमशः इस प्रकार विभाजित हैं- 1. मंगु बूबा जी का परिवार- मवाण बाखली, धोबीघाट, कोठा मल्ला(पौड़ी गढ़वाल में) तनसालीसैंण, बाखली, रानीडेरा(अल्मोड़ा जिला)
2. जीमा बूबा जी का परिवार- मवाण बाखली(पौड़ी गढ़वाल)
मल्ला लखोरा(अल्मोड़ा)
3. केम्पू बूबा जी का परिवार- कोठा तल्ला(पौड़ी गढ़वाल)
4. कल्वा बूबा जी का परिवार- मरखोला(पौड़ी गढ़वाल) मठखानी(अल्मोड़ा)
5. दन्तु बूबा जी का परिवार- तनसाली सैंण(अल्मोड़ा) बन्दरकोट तल्ला(पौड़ी गढ़वाल)
6. नथू बूबा जी का परिवार- मठखानी(अल्मोड़ा)बन्दरकोट मल्ला(पौड़ी गढ़वाल)
7. मौल्या बूबा जी का परिवार- थबड़िया तल्ला(पौड़ी गढ़वाल जिले में) है।
आज इनका 14वां वंश अस्तित्व में है। इनमे आज सबसे आगे चलने वाली पीढ़ी जो है | वो कोठा मल्ला के स्वर्गीय श्री चन्दन सिंह रावत के पोते, ऋषभ रावत है| और थबड़िया तल्ला सबसे छोटे बेटे का बंसज है
मां काली की असीम कृपा और अपने बूबा की याद में वर्षों से चले आ रहे इस पूजा और यात्रा का इन गांवों और वंशजों द्वारा आयोजन किया जाता है। यह पूजा और यात्रा अपने आप में एक बहुत बड़े क्षेत्र को प्रभावित करने वाला अद्भुत धार्मिक कार्यक्रम है।
परम्परा अनुसार कार्तिक मास में दीपावली जिसे स्थानीय भाषा में बग्वाल कहते हैं के पश्चात बडियारी बंधुओं की कोठा गांव में जहां से मां भगवती की यात्रा प्रारंभ होती है पूजा और यात्रा के संबंध में बैठक होती है और सभी को अलग अलग कार्यों की जिम्मेदारी दी जाती है। इसके बाद जखोला गांव थलीसैंण जाकर महाकाली के पुरोहित और वडियारियों के पैतृक ब्राहमण, मंमगाईं पंडितों से आदरपूर्वक मिलकर मां भगवती की पूजा की स्वेच्छा करते हैं और शुभ दिन निकालने के लिए आग्रह करते हैं।
तथ्यों के अनुसार ममगांई पंडित और रावत दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं दोनों साथ साथ दक्षिण भारत से उज्जैन(मध्य प्रदेश) और फिर राजस्थान आए थे,राजस्थान में मुगलों के शासन काल में अत्याचारों से तंग आकर ये
लोग उत्तर की ओर टिहरी के वडियार गढ पहुंचे थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार दक्षिण और मध्य भारत से लोग यहाँ बद्री नारायण के दर्शनों के लिए आते थे और यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता को देखते हुए यहीं निवास स्थान बना लिया करते थे इन्हीं में से एक ये भी थे।
मंमगाईं पंडित पंचांग के अनुसार शुभ मुहूर्त देखकर मां भगवती के यात्रा और पूजा का दिन तय कर इन्हें बताते हैं
मां भगवती की यह पूजा हमेशा मंगल या शनिवार को ही होती है। इसके बाद उत्तराखण्ड की संस्कृति में मुख्य भूमिका निभाने वाले यहां की संस्कृति के संवाहक, ढोल-दमाऊ उत्तराखण्ड के मुख्य वाद्ययंत्र के वादक जिन्हें औजी कहते हैं,इन्हें इनके गांव बज्वाड़ जाकर मां भगवती के पूजा और यात्रा के बारे में अवगत कराया जाता है और दिवाली के 11दिन बाद होने वाले पहाड़ी त्योहार इगास के दिन मां भगवती के पवित्र प्रांगण कोठा गांव में रात्रि के जागरण के लिए न्योता दिया जाता है जिसे खलि जागन्त या जागृत कहा जाता है जिसे भैला कौथिग भी कहते हैं तथा इसी दिन पूजा और यात्रा के शुभ दिन के बारे में आम जन को भी सूचित किया जाता है। इसके बाद 15 से 20 दिन में यहीं से शुरुआत होती है यात्रा आयोजन की, मां काली के पुरोहित मंमगाईं पंडित तथा ढोल-दमाऊ लेकर पहुंचे औजियों का मां भगवती के प्रांगण में स्वागत सत्कार होता है औजी आकर पहले ढोल-दमाऊ बजाते हैं और ढोल-दमाऊ की मधुर ध्वनि के साथ आमजन को आमंत्रण देते हैं सूचित करते हैं। शाम को सभी वडियारि कुल के लोग अपने अपने गांवों से लाए अपने कृषि यंत्रों,शस्त्रों की पूजा करते हैं जिसे निकर पूजा कहते हैं। रात्रि भोजन के बाद फिर शुरू होता है देव नृत्य या कौथिग जिसमें विभिन्न क्षेत्रों,गावों से आमंत्रित किए गए देवताओं के डांगर जिन पर किसी देवी-देवता का प्रादुर्भाव होता है जैसे- कालिंका मां,कृष्ण,घनियाल,द्रौपदी,नृसिंह,ग्वेल आदि। पूरी रात देव नृत्य के साथ साथ मां भगवती के दिव्य स्वरूप न्याजा की तैयारी होती है। अगले दिन सुबह मां भगवती के प्रांगण में सूर्य की पहली किरण के साथ ढोल-दमाऊ,भंकोर और शुभ मांगलिक गीतों की मधुर ध्वनि के साथ सुन्दर सुशोभित स्वरूप मां भगवती न्याजा का प्रादुर्भाव होता है मां भगवती के दिव्य स्वरूप न्याजा के दर्शनों से आमजन प्रफुल्लित हो जाता है और मां की जयकार के साथ इस क्षण को देखने के लिए पहुंचे मां भगवती के सभी भक्त मां का आशिर्वाद प्राप्त करते हैं। इसके साथ ही प्रारंभ होती है मां भगवती की 11से लेकर 14 दिनों की यात्रा। बहुत समय पहले तक यह यात्रा लगभग 30 दिनों तक चलती थी और दूर दूर तक के क्षेत्रों जैसे- बिनसर,जोगिमणी,बीरोंखाल,घोड़ियाना, मैठाणा,बंवासा,सीली,जमरिया मंगरोखाल,इकूखेत आदि तक होती थी।वर्तमान में रोजगार के लिए अधिकतर लोगों के बाहर रहने के कारण और समय के अभाव में इस यात्रा को सीमित कर दिया गया है अब यह यात्रा अधिकतर एक तय सीमा के अंतर्गत ही होती है जिसे केर कहते हैं इस सीमा के अंदर सभी 14 वडियारि गांव आते हैं। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार यात्रा तय सीमा केर से बाहर करनी हो तो यात्रा की दिशा अलग होती है और अगर यात्रा तय सीमा के अन्दर ही हो तो अलग दिशा की ओर प्रस्थान किया जाता है। पहले दिन की यात्रा कोठा तल्ला से कोठा मल्ला तक होती है दूसरे दिन की यात्रा कोठा मल्ला से लेकर तिमलाखोली इससे आगे की यात्रा को समय और दिनों के हिसाब से तय किया जाता है यह निश्चित नही होता कि कहां दोपहर का भोजन होगा कहां पर रात्रि विश्राम। यात्रा के दौरान जहां पर भी रात्रि विश्राम होता है वहां देव नृत्य का आयोजन किया जाता है। आगे यह यात्रा धोबीघाट, वहां से थबड़िया तल्ला, वहां से मरखोला, मरखोला से बंदरकोट तल्ला, बंदरकोट तल्ला से बंदरकोट मल्ला, बंदरकोट मल्ला से तनसाली सैंण,तनसाली सैंण से रानी डेरा जाती है ,यहां पर मां भगवती की यात्रा का रात्रि विश्राम होता है सुबह यहां से कुलान्टेश्वर के लिए प्रस्थान किया जाता है यहां मां गंगा की सहायक दो धाराओं के पवित्र संगम पर स्थित शिव मंदिर के तट पर मां भगवती का पूरे विधि विधान के साथ पवित्र स्नान होता है साथ ही यात्रा में शामिल श्रद्धालू भी स्नान करते हैं। यहां से आगे बाखली नामक गांव की ओर प्रस्थान करते हैं,बाखली से मठखांणी,मठखांणी से लखोरा मल्ला, लखोरा मल्ला से मवाण बाखली और मवाण बाखली से यह यात्रा 11से 14 दिन में शाम को कोठा तल्ला मां भगवती के प्रांगण जहां से यात्रा प्रारंभ होती है वहां पहुंचती है। यहां एक बार फिर से रात्रि कौथिग देव नृत्य होता है। अगले दिन सुबह सूर्योदय होते ही मां भगवती की प्रतिमा न्याजा को श्रद्धालुओं के दर्शनों और महापूजा के लिए कालिंका मंदिर में स्थापित किया जाता है। जहां दूर दूर और चारों ओर से हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की लंबी लंबी कतारें मां के जयकारों के साथ मंदिर में पहुंचते हैं और मां भगवती के दर्शन कर अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए मां भगवती से प्रार्थना करते हैं।
विशाल जन समूह के बीच पूरे विधि विधान के साथ पूजा संपन्न होने पर मां भगवती शाम को सूर्यास्त से पहले वापस अपने निवास कोठा की ओर लौटती है और इसी के साथ दूर-दूर से यहां पहुंचे श्रद्धालुओं को शांतिपूर्वक अपने अपने गांवों, घरों जाने का आह्वान किया जाता है। दूसरे दिन सुबह कोठा गांव में पूरे विधि विधान के साथ पूजा,गोदान और हवन किया जाता है तथा क्षेत्र और लोगों की सुख संपन्नता के लिए मां भगवती से प्रार्थना के साथ ही पंडितों द्वारा समापन की घोषणा होती हैं। मंदिर में पहुंचने के लिए गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों से मुख्यतः तीन सड़क मार्ग हैं- रामनगर से सराईखेत मठखाणी-खलीढैया तथा रामनगर रसिया महादेव,बंदरकोट-कोठा, पौड़ी और कोटद्वार की ओर से बीरोंखाल आने वाले मुख्य मार्ग भी संपर्क मार्गों के माध्यम से रसिया महादेव के समीप रामनगर से आने वाले मुख्य मार्ग से जुड़ी है। इसके अतिरिक्त चारों ओर से सड़कों के निकट छोटे-2 बाजारों-मैठाणाघाट,बीरोंखाल, स्यूंसी,जोगिमणी आदि जगहों से पैदल मार्ग भी हैं। उष्णकटिबन्धीय मानसूनी विशेषताओं वाले इस क्षेत्र की जलवायु शीतोष्ण यानि ठंडा व गरम है इसकी विशेषता मौसम के अनुसार तापमान परिवर्तन है।जनवरी सबसे ठण्डा महीना होता है, जब निम्न तापमान लगभग 5° सेल्सियस हो जाता है।वहीं सबसे गर्म महीना मई से लेकर जून मध्य तक होता है जब तापमान लगभग 30-35°सेल्सियस तक होता है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में होने के कारण यहां पर नवम्बर मध्य से लेकर फरवरी तक हिमपात की संभावना रहती है। डॉक्योमेंटी रिलीज़ की तारीख: 23/03/2020
कहानी लेखक एवं संकलन - जगमोहन पटवाल (थबड़िया मल्ला)
